यह सही है कि छत्तीसगढ़ में राजिम मेला का जो वैभवपूर्ण इतिहास रहा है वह किसी दूसरे मेले का नहीं रहा। माघी पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक रोज रोज भरे जाने की जो एक मैराथन पारी इस मेले में संपन्न होती है इसका कोई दूसरा जोड़ न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि इसके पड़ोसी राज्यों की सीमाओं में भी देखने में नहीं आता। राजिम का अपना पौराणिक इतिहास तो है ही लेकिन यहां भरा जाने वाला मेला अपनी विशालता के कारण विशिष्ट रहा है। महानदी की फैली पसरी रेत पर नदी के बीचोंबीच भरने वाला यह मेला अपनी कई विशेषताओं के कारण लोक में सबसे अधिक मान्य रहा है। बरसों तक राजिम मेला और महादेवघाट मेला देखने जाना एक उपलब्धि मानी जाती रही है। राजिम के आसपास रहने वाले जन भी अपने रिश्तेतेदारों को कहा करते थे “मेला बखत आबे।“
तब राजिम की चारों दिशाओं से बैल गाड़ियों का काफिला पहुंचा करता था। इनमें ज्यादातर भैंसा-गाड़ा वाले होते थे जो कई कई दिनों और रातों का सफर तय करके सुदुर क्षेत्रों से मेला देखने के लिए पहुंचा करते थे। मंद गति से चलने वाले ऐसे भैंसा गाड़ा के पीछे पैदल चलने वाले मेला दर्शनार्थियों के झुंड के झुंड किसी भी गांव में मुंह अंधेरे ही दिख जाते थे जो राजिम की ओर जा रहे होते थे। पचासों मीलों की दूरी को ग्रामवासी जिस परिश्रम, धैर्य और उत्साह के साथ चला करते थे वह विस्मयकारी था। लोक-संस्कृति की यह चेतना मनुष्य को कितने निर्लिप्त भाव से अपनी मंजिल तक ले जाती है।
राजिम नगर के पास आने पर पहुंचने वालों का उत्साह और भी बढ़ता जाता था। लोगों की उमंग भरी किलकारियों को सड़क पर सहज ही देखा जा सकता था। विशेषकर अभनपुर से राजिम तक के हुजूम में. तब नदी के भीतर खुली रेत पर मेले स्थल में पहुंचते ही मेले की छटा आए हुए लोगों की थकान को हर लेती थी। दिन भर मेला घूमने और रात भर सिंगल मशीन के टूरिंग टॉकीजों में पिक्चर देखने का आनंद कितना था यह तो आज भी पूछने पर बताया नहीं जा सकता। जबकि इन सिनेमा स्थलों का यह हाल था कि बीस रील वाली फिल्म की कौन सी रील आगे लगी है कौन सी पीछे कुछ कहा नहीं जा सकता था। मसलन ‘उपकार’ फिल्म देखने वाला दर्शक प्राण को गोली खाकर मरते हुए पहले देखता था और ‘कसमे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या’ गाना गाते हुए उसे बाद में देखता था। नदी तट पर मेले स्थल में रात बिताने, ईंट की सहायता से अपने चूल्हे तैयार कर लेने और उसमें जर्मन के बगोना में अपने लिए भात रांध लेने और मेले में मिरचा-पताल धनिया खरीद कर सील-लोढ़े या किसी भी गोटर्रा पत्थर पर उसकी चटनी पीसकर उसे गरमागरम भात के साथ भरपेट खाकर वहीं थकान से रेत पर ढेर हो जाने का उसका अपना सुख किसी अलौकिक सुख से भरा था। राजिम के इस मेले में छत्तीसगढ़ की आत्मा समा जाया करती थी। फिर ता-उम्र इस मेले को देख लेने वाले आदमी की छाती फूली होती थी कि उसने भी राजिम मेला देखा है।
एक लम्बे गौरवमयी इतिहास के बाद भी आज तक राजिम छत्तीसगढ़ का एक सर्व-सुविधायुक्त तीर्थ स्थान नहीं बन पाया है..और ऐसे समय में भी नहीं बन पा रहा है जब अपना राज पा लेने और क्षेत्रीय अस्मिता की पहचान का हल्ला जोरों पर है। यह हल्ला रोज रोज होता है कि ‘यह छत्तीसगढ़ का प्रयागराज है। यह भी श्रेय लूटा जाता है कि असली प्रयाग (इलाहाबाद) में तो केवल दो नदियां दृष्टव्य हैं एक तो गुप्त है पर यहां (राजिम में) तो जिन तीन नदियों का संगम है वे तीनों दृष्टव्य हैं। असली त्रिवेणी संगम तो राजिम में है। पर त्रिवेणी संगम होने के बाद भी जल का संकट यहां इतना गहराया है कि पानी की धार को खोजना पड़ता है। इन नदियों को पानीदार बनाने के लिए वैज्ञानिक स्तर पर जो काम शासन से करवाया जाना था वह कितना हुआ यह कहा नहीं जा सकता
कुलेश्वर महादेव का दर्शन करने के लिए लम्बे समय तक रेत पर चलना एक थका देने वाली कसरत है। ले देकर मेला मनाने और मेले में तीर्थ यात्रियों के स्नान के लिए पानी को बांधा जाता है। अस्थि विसर्जन कार्यक्रम को निपटाने में छत्तीसगढ़ का यह प्रयागराज इतना असुविधाजनक होता है उसके पीछे पानी का यही संकट है। जब हम अपनी नदियों से पानी की धार ही पैदा नहीं कर पाए तब हमारे पुरखों की अस्थियां बहाने वाली और उनको तारने वाली वह पतित पावनी वैतरणी कहां से लाएंगे!
छत्तीसगढ़ में हमारे सबसे हल्ला बोल तीर्थ स्थान राजिम का यह हाल है। बड़े उत्साह से लोग आज भी राजीवलोचन और राजिमबाई तेलिन का दर्शन करने या पिकनिक मनाने के लिए राजिम पहुंचते हैं। पर मेला पर्व को छोड़कर साल के शेष समय में देखा जाए तो वहां यात्रियों के लिए कोई विशेष सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। रेलवे का वही एक शताब्दी पुराना धमतरी लाइन जिसमें राजिम के लिए छुक छुक गाड़ी चलती रही थी। जबकि यहां के एक बड़े नामी विधायक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके थे।
फिर पिछली सरकार ने हर साल तीन सौ चार सौ करोड़ का बजट बनाकर इसे कुंभ बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी। जब वैदिक युग से ही कुंभ के चार स्थान नीयत हैं तब इक्कीसवी सदी में किस तरह राजिम को कुंभ घोषित कर दिया जाए यह विचार एक छलावा है। कल को कुलेश्वर महादेव को ज्योतिर्लिग में शामिल किए जाने की कोई आवाज उठेगी और देश में शंकराचार्य की एक और पदवी के लिए भी यहां अनुमोदन किए जाने का हल्ला उठेगा तब क्या होगा. धर्म और संस्कृति अब संस्कृति कर्मियों के नहीं राजनेताओं के हाथ होते है और उनके हाथों में हर सांस्कृतिक मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा बनने में देर कितनी होती है?
बल्कि इसे कुंभ बनाने का हवाला देकर कुछ असंगत प्रयोग किए जा रहे थे. तब यहां नागा बाबाओं की भीड़ एकत्रित की जा रही थी। बीते सरकार के काल में एक बार एक नागा बाबा के शिश्न में बांधकर एक मंत्री की कार को उससे खिंचवाया गया था। राजिम के कुछ प्रबुद्धजनों ने ऐसे विकृत प्रयोग का विरोध भी किया था। आवश्यकता इस बात की है कि स्थानीय पंडों और पुजारियों को ही जोड़कर राजिम मेले के पारम्परिक रुप को परिष्कृत किया जावे, मेला स्थल को और भी सुविधा सम्पन्न बनाया जावे न कि बाहर से बुलाये गये शैव, वैष्णव या नगा बाबाओं की अनावश्यक भीड़ एकत्रित कर उन पर करोड़ों रुपये फूंका जावे जिसकी कि राजिम में कभी परम्परा ही नहीं रही। भला हो इस सरकार का जिसने मेले के पुराने नाम को वापस लाकर इसे राजिम कुम्भ से राजिम माघी पुन्नी मेला किया है.
यदि यहां संस्कृति और पर्यटन को बढ़ावा मिलता है तो राजिम-वासियों के रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। आज पर्यटन स्थल केवल एक मनोरंजन गाह भर नहीं होते। ये बड़़े व्यावसायिक केन्द्र भी बन सकते है। आखिरकार आज का पर्यटक राजिम मेले में अब भैंसा गाड़ी से तो नहीं जाएगा। उसकी आस्था और रुचियों में बदलाव आया है.